योग संदेश

योग तथा परमात्मा के प्रति सम्पूर्ण मनुष्य जाति क्यों इतनी उपेक्षापूर्ण हो गयी है, क्यों घृणा से भर गयी है? अवश्य ही कहीं कुछ योग के साथ गलत हो गया है। इसे ठीक से समझ लेना क्योंकि यह कोई साधारण बात नहीं है।
योग जीवन की इतनी महत्त्वपूर्ण घटना है कि मनुष्य योग के बिना जीवित नहीं रह सकता। योग के बिना जीना, बिना किसी उद्देश्य के जीना है। योग के बिना जीवन, काव्यविहीन एवं सौन्दर्यविहीन जीवन है। योग के बिना जीवित रहना ऊबाऊ है। यदि तुमसे अधिक ऊँचा कुछ न हो तो फिर जीवन के सम्पूर्ण उद्देश्य तिरोहित हो जाते हैं। यदि मनुष्य के लिए अपने से ऊपर पहुँचने की कोई ऊँची जगह न हो, ऊपर उठने को कुछ न हो, तो फिर मनुष्य के जीवन का कोई लक्ष्य, कोई उद्देश्य, कोई अर्थ नहीं रह जाता है। मनुष्य को अपने से ऊपर उठने के लिए, आकर्षित करने के लिए, उसे ऊपर की ओर खींचने के लिए उससे श्रेष्ठ कुछ होना चाहिए। कुछ इतना श्रेष्ठ होना चाहिए ताकि वह नीचे अटक कर न रह जाए।

कुछ ऐसे लोग हैं जो निश्चित ही योग विरोधी हैं। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो शायद सम्पूर्णतया योग विरोधी नहीं भी होंगे लेकिन फिर भी वे योग के प्रति उपेक्षापूर्ण होते हैं। कुछ ऐसे भी लोग हैं जो योग के प्रति उपेक्षापूर्ण तो नहीं है लेकिन जो केवल पाखंड़ी हैं, जो यह दिखावा करते हैं कि उनकी योग में रूचि है। संसार में ये तीन तरह के लोग ही रह गये हैं और जो सच्चा योग साधक है, वह खो गया है। ऐसा क्यों हुआ है?
पहली बात कि आज जीवन के प्रति एक नए दृष्टिकोण को खोज लिया गया है। अब विज्ञान की खोज हो चुकी है। अब विज्ञान के माध्यम से मनुष्य के पास एक नया द्वार खुल गया है और योग अभी तक विज्ञान के नए आयाम को आत्मसात नहीं कर पाया है। योग विज्ञान को अपने में आत्मसात करने में इसलिए असफल हो गया है क्योंकि तथाकथित साधारण लोग विज्ञान को आत्मसात करने में असमर्थ हैं।

जीवन के प्रति तीन प्रकार की दृष्टियाँ सम्भव हैं। पहली है बौद्धिक, तार्किक, वैज्ञानिक; दूसरी है अबौद्धिक, अविश्वास से भरी और अतार्किक, और तीसरी दृष्टि है तर्कातीत, अनुभवातीत । साधारण योग ने अतार्किक दृष्टिकोण को ही पकड़ कर रखा था और वही बात योग के लिए आत्मघात बन गयी। यही बात योग के लिए जहर हो गयी । योग को आत्महत्या करनी पड़ी क्योंकि वह जीवन के दुर्बलतम दृष्टिकोण अर्थात् अबौद्धिक दृष्टिकोण पर ही रूक कर रह गया। अबौद्धिक शब्द से अभिप्राय है- अंधविश्वास । इस बीसवीं सदी तक योग अंधविश्वास के सहारे फलता-फुलता रहा और गतिमान होता रहा, और ऐसा इस कारण हो सका क्योंकि योग का और कोई प्रतिद्वंदी न था और योग के पास इससे अच्छा दृष्टिकोण न था।

लेकिन जब विज्ञान का जन्म हुआ तो एक अधिक सशक्त, अधिक प्रौढ़, अधिक प्रामाणिक (AUTHENTIC) और अधिक तर्कसंगत (LOGICAL) दृष्टिकोण का जन्म हुआ। विज्ञान के अस्तित्व में आने से द्वंद खड़ा हो गया। विज्ञान के अस्तित्व में आने से योग और भयभीत हो गया क्योंकि यह नया दृष्टिकोण योग को नष्ट करने के लिए सम्पूर्णतया तैयार था और इसी तरह योग उधेड़बुन में अपनी सुरक्षा का प्रबन्ध करने लगा और इस तरह धीरे-धीरे योग शब्द समाप्त होता चला गया। प्रारम्भ में तो विज्ञान के समकक्ष योग ने खड़े रहने की कोशिश की क्योंकि उस समय तक तो योग शक्तिशाली एवं प्रतिष्ठित था और सामाजिक व्यवस्था का अंग था, लेकिन योग को यह न मालूम था कि यह विनाशकारी कार्य स्वयं उसके लिए ही आत्मघाती होने वाला है और इस प्रकार से योग ने विज्ञान के साथ एक पराजित होने वाली लम्बी लड़ाई प्रारम्भ कर दी।

कोई भी कमजोर दृष्टिकोण सशक्त दृष्टिकोण के साथ लड़ नहीं सकता है। दुर्बल दृष्टिकोण कभी न कभी असफल होगा ही। आज नहीं तो कल, लेकिन असफल होगा ही। अधिक से अधिक यही हो सकता है कि दुर्बल बात लड़ाई और पराजय को स्थगित कर दे। लेकिन लड़ाई से, पराजय से बचा नहीं जा सकता है। जब भी कभी सशक्त दृष्टिकोण उपस्थित होता है तो कमजोर को मिटना ही होता है। या तो उसे बदलना होता है या उसे और अधिक परिपक्व होना होता है। तथाकथित साधारण योग की मृत्यु हो गयी क्योंकि वह स्वयं को पतञ्जलि के तल तक ऊपर नहीं उठा सका।
पतञ्जलि योगी भी है और वैज्ञानिक भी है। विज्ञान के वर्तमान युग में केवल पत्तञ्जलि का योग ही जीवित रह सकता है। उससे कम के योग से अब काम नहीं चलेगा। मनुष्य ने विज्ञान के माध्यम से अब अधिक ऊँचा चेतना का स्वाद पा लिया है। सत्य के लिए उसने अधिक प्रामाणिक, तर्कसंगत और ठोस प्रमाण की प्राप्ति कर ली है। अब आने वाली युवा पीढ़ि को किसी भी तरह से भ्रम में, अंधकार में और अंधविश्वास में नहीं रखा जा सकता। अब यह बिल्कुल असम्भव है। आज आदमी व्यस्क हो गया है और योग अभी तक बचकाना ही बना हुआ है।

दूसरा दृष्टिकोण है तार्किक दृष्टिकोण। यह पतञ्जलि की दृष्टि है। पतञ्जलि किसी भी बात में विश्वास करने को नहीं कहते। पतञ्जलि कहते हैं प्रयोगात्मक बनो, पतञ्जलि कहते हैं कि जो कुछ भी कहा जाता है, वह अनुमान पर आधारित होता है। लेकिन व्यक्ति को अपने अनुभव के द्वारा उसे प्रमाणित करना है, और दूसरा कोई प्रमाण नहीं है। पतञ्जलि कहते हैं कि दूसरों की बात का भरोसा मत करना और न ही उधार ज्ञान को ही ढोते रहना।
अतीत में तथाकथित योग की मृत्यु इसीलिए हो गयी, क्योंकि वह केवल उधार का ज्ञान बन कर रह गया। कृष्ण ने कहा परमात्मा है और हिन्दू इस पर विश्वास किए चले जाते हैं। ईसाई, मुसलमान, बुद्ध, जैन, सभी इस पर विश्वास किए चले जाते हैं। लेकिन यह बात उधार है। किसी दूसरे का अनुभव तुम्हारा अपना अनुभव नहीं हो सकता। तुम्हें स्वयं ही अनुभव करना होगा और केवल तभी सत्य तुम्हारे सामने उद्घटित हो सकता है। उधार के अनुभव के द्वारा हम कब तक स्वयं को धोखा दे सकते हैं। उधार ज्ञान सिवाय पंगु बनाकर नष्ट करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं करता है। इसलिए आने वाला भविष्य पतञ्जलि का है, क्योंकि उनका योग तर्क पर और उससे अधिक विवेक व अनुभव पर आधारित है।

यदि व्यक्ति में विवेक न हो तो उसमें कुछ कम होता चला जाता है। व्यक्ति में
परम विवेक का होना एक विशेषता का गुण है। उसमें कुछ घनात्मकता (बढ़ना) का होना है। विश्वास बुद्धि का अभाव है और बुद्धि के पार श्रद्धा होती है। लेकिन अनुभव के द्वारा आयी हुई श्रद्धा। श्रद्धा उधार नहीं होती अपितु जो व्यक्ति परम विवेकशील होता है, वह यह समझता है कि जीवन तर्क से कहीं अधिक बड़ा होता है। परमविवेकवान व्यक्ति बुद्धि को स्वीकार कर लेता है। वह बुद्धि को भी अस्वीकृत नहीं करता। बुद्धि और तर्क वहीं तक ठीक होते हैं जहाँ तक उनकी पहुँच होती है। इसलिए उनका भी उपयोग कर लेना चाहिए
लेकिन जीवन की समाप्ति बुद्धि और तर्क पर ही नहीं हो जाती। ये ही जीवन की सीमा नहीं है, जीवन उससे कहीं अधिक बड़ा है। तर्क तो केवल बुद्धि का अंग है। यदि बुद्धि सम्पूर्ण अस्तित्वगत एक संगठित इकाई बनी रहे तब तो वह सुंदर है। यदि बुद्धि अलग घटना बन जाए और अपने से कार्य करने लगे तब वह कुरूप हो जाती है, असुंदर हो जाती है। यदि वह इस विराट् अस्तित्त्व का हिस्सा बनी रहती है, तो सुंदर होती है, फिर उसके अपने उपयोग हैं।

जो व्यक्ति परमविवेकशील होता है, वह बुद्धि के विपरीत नहीं होता। अपितु वह
बुद्धि के पार होता है। वह जानता है कि बुद्धि और विवेक दोनों ही दिन और रात की तरह, जीवन और मृत्यु की तरह जीवन के हिस्से हैं। तब ऐसे व्यक्ति के लिए उनमें कोई विरोधाभास नहीं है। उसके लिए वे एक दूसरे के पूरक हो जाते हैं।
मनुष्य दो तरह का जीवन जी सकता है। एक है बर्हिमुखी जीवन और दूसरा है रह गए हैं, उनके सभी विश्वास उधार के होकर रह गए हैं, और तीसरी बात आज दुनिया में लोग बहुत जल्दी में है, कहीं जाना भी नहीं है फिर भी जल्दी में है। यह पूछना कि तुम इतनी तेजी से कहाँ जा रहे थे या तुम कहाँ जा रहे हो, एक असभ्य और अशिष्टतापूर्ण बात हो जाती है। क्योंकि हम यह जानते ही नहीं कि हम कहाँ जा रहे हैं, क्यों जा रहे हैं?

हम सभी लोग जल्दी में है, जबकि योग एक ऐसा वृक्ष है जिसमें विकास के लिए असीम धैर्य चाहिए यदि किसी भी प्रकार की जल्दबाजी या अधैर्य किया तो योग से चूकना जैसा हो जाएगा। वर्तमान आधुनिक जीवन में व्यक्ति की दौड़ इतनी क्यों बढ़ गयी है? क्योंकि आधुनिक मन बहुत अधिक अहंकार केन्द्रित है। उसी अहंकार से यह जल्दी आती है। अहंकार को सदैव मृत्यु का भय रहता है और उसका यह भय स्वाभाविक भी है क्योकि अंततः मृत्यु तो अहंकार की ही होती है। कोई भी उसे बचा नहीं सकता । कुछ समय तक अंहकार को बचाया जा सकता है लेकिन कोई भी अहंकार को लम्बे समय तक नहीं बचा सकता। अंततः एक दिन अहंकार की मृत्यु होती है क्योंकि इस विराट् अस्तित्त्व से पृथक होने की मृत्यु तो होगी ही, और जितना अधिक हम इस विराट् अस्तित्व से अलग और पृथक अनुभव करते हैं, उतने ही अधिक हम मृत्यु से भयभीत होते जाते हैं। अपने को अस्तित्व से पृथक मानने के कारण मृत्यु का भय सताता है और जितने अधिक हम अस्तित्व से अलग थलग होते जाते हैं उतनी ही अधिक चिन्ताओं, परेशानियों और भय
से घिरते चले जाते हैं।

अस्तित्व - केन्द्रित मन कभी एक दूसरे से पृथक नहीं होता। ऐसा व्यक्ति कभी भी जल्दी में नहीं होता। वह जीवन को बहुत आराम से, आनंद से धीरे-धीरे जीता है। वह जीवन की यात्रा का पूरी तरह से आनंद लेता है। जबकि पदार्थ केन्द्रित अर्थात् अहंकार - केन्द्रित व्यक्ति अपने आप में सिकुड़कर अकेला होता जाता है। ऐसा व्यक्ति अधिक चिंतित, बीमार एवं मृत्यु के भय से ग्रसित रहता है। जितना अधिक व्यक्ति अकेला है क्योंकि जितना अधिक आदमी अकेला होता है, अस्तित्व से व प्रकृति से पृथक होता जाता है, उसी अनुपात में उसकी मृत्यु घटित होती है क्योंकि मृत्यु तो केवल मनुष्य के अहंकार की ही होती है। आदमी के भीतर जो सर्वव्यापी तत्त्व है, वह फिर भी जीवित रहता है, उसकी मृत्यु नहीं होती। वह मर ही नहीं सकता। वह तो जन्म से पहले भी मौजूद था और मृत्यु के बाद भी मौजूद रहेगा।

मृत्यु आ रही है इसलिए हम सदैव जल्दी में ही रहते हैं। जीवन छोटा है, समय कम है और इस छोटे से जीवन में बहुत से कार्य करने को हैं। ध्यान करने के लिए किसके पास समय है? योग करने के लिए किसके पास समय है? लोग सोचते हैं कि वह सब तो केवल पागलों के लिए है क्योंकि यदि ध्यान करो तो, लबे समय तक, कई-कई वर्षों तक आतुरता से प्रतीक्षा करनी होती है। लेकिन उस आतुरता में धैर्य और जागरूकता चाहिए, उसमें तो केवल धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा ही की जा सकती है। लेकिन आधुनिक मन को किसी भी बात के लिए प्रतीक्षा करना समय की बर्बादी लगता है। इसी अधैर्य और आतुरता के कारण ही पृथ्वी पर योग का फूल खिलना असम्भव हो गया है। अधिकांश लोग केवल इस बाल का दिखावा करते हैं कि वे योगी हैं, लेकिन सच्चे, वास्तविक और प्रामाणिक योग से वे बचते हैं। अभी तो योग एक सामाजिक औपचारिकता बनकर रह गया है। लोग मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे केवल इस कारण से जाते हैं कि वहाँ जाने से समाज में सम्मान, प्रतिष्ठा मिलेगी। आदमी - आदमी को नहीं जानता, आदमी आदमी से प्रेम नहीं करता क्योंकि समय किसके पास है, जीवन थोड़ी देर का है और अभी तो बहुत से काम करने हैं।

अधिकांश लोगों का वस्तुओं में अधिक रस रह गया है। उन्हें बड़ी कार खरीदनी है, उन्हें बड़ा मकान बनाना है, बड़ा बैंक बैलेंस बनाना है। लोगों की सम्पूर्ण ऊर्जा इन्हीं वस्तुओं के संग्रह में नष्ट हो जाती है। हम इस बात को सम्पूर्णतया भूल ही बैठे हैं कि असली बात स्वयं के अस्तित्व की पहचान है। जीवन का वास्तविक उद्देश्य स्वयं की सत्ता पातञ्जल समाधियोग..
पा लेना है; न की बड़ी कार, नया मकान या बैंक बैलेंस को बड़ा करते जाना है क्योंकि बैंक - बैलेंस जितना भी बड़ा हो, अंत में यहीं का यहीं रह जाएगा। अंत में तो केवल हमारा होश, हमारा बोध और हमारी जागरुकता ही हमारे साथ जा सकेगी।
योग व्यक्ति के आंतरिक अस्तित्त्व का विज्ञान है। आत्मा को जानने का विज्ञान है। आंतरिक जगत में हम कैसे अधिकाधिक विकसित और जागरूक हों, इस विज्ञान का नाम ही योग है।



–परम् पूज्य गुरुदेव ब्रह्ममूर्ति योगतीर्थ जी महाराज
संस्थापक ध्यान योग आश्रम एवं आयुर्वेद शोध संस्थान

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