भारतीय योग अपने सार तत्व में ‘प्रकृति’ की कुछ महान शक्तियों की एक विशेष क्रिया या ज्ञान है। यह स्वयं विशिष्ट और विभाजित है और अनेक प्रकार से निरूपित है। अतः यह अपने बीज रूप में मनुष्य जाति के भावी जीवन के इन सक्रिय तत्वों में से एक है। यह अनादि युगों का शिशु है तथा हमारे इस आधुनिक युग में अपनी जीवन शक्ति और सत्य के बल पर जीवित है। अब यह उन गुप्त संस्थाओं और सन्यासियों की गुफ़ाओं से बाहर निकल रहा है, जिनमें हमने आश्रय लिया था।
अगर हम जीवन और योग दोनों को यथार्थ दृष्टिकोण से देखें तो सम्पूर्ण जीवन ही चेतन या अवचेतन रूप में योग है। योगिक पद्धतियों का मनुष्य की प्रचलित मनोवैज्ञानिक क्रियाओं के साथ वही संबंध है जो विधुत और वाष्प की स्वाभाविक शक्ति के वैज्ञानिक प्रयोग का वाष्प और विधुत की सामान्य क्रियाओं के साथ है। समस्त राजयोग इस ज्ञान और अनुभव पर आधारित है कि हमारे आन्तरिक तत्व, संयोग, और कार्य तथा हमारी विशेषताएँ अलग-अलग की जा सकती हैं, उनमें विघटन हो सकता है, उन्हें नए सिरे से मिलाया जा सकता है, तथा उनसे ऐसे नए कार्य कराए जा सकते हैं जो पहले असम्भव माने जाते थे।
जो प्रणालियाँ योग के सामान्य नाम के अंतर्गत आती हैं, वे सब विशेष-मानोवैज्ञानिक प्रक्रियाएँ हैं। ये प्रक्रियाएँ प्रकृति सम्बन्धी एक स्थिर सत्य पर आधारित होती हैं। वे सामान्य क्रियाओं से ऐसी शक्तियाँ और परिणाम विकसित करती हैं जो सदा सुप्त अवस्था में तो विद्यमान थीं पर जिन्हें सामान्य क्रियाएँ आसानी से अभिव्यक्त नहीं करतीं। यदि करती भी हैं तो बहुत कम।
लेकिन योग की आन्तरिक गहराइयाँ प्रकृति से परे चेतना के गर्भ में घटित होती हैं। यहाँ में मन का अतिक्रमण अनिवार्य है। योगी सामान्य जीवन से अलग हट जाना चाहता है और उस पर अपना अधिकार खो देता है। वह अपनी मानसिक क्रियाओं को दरिद्र बनाकर आत्मा का गहन ज्ञान प्राप्त करना चाहता है, जैसे बाहरी मृत्यु के मूल्य पर आन्तरिक स्वतंत्रता की इच्छा करता है। यदि वह भगवती को पाना चाहता है तो उसे समाज विरोधी होना चाहिए। इसलिए हम भारतवर्ष में सांसारिक जीवन और आध्यात्मिक जीवन और विकास में एक तीव्र प्रकार की असंगति देखते हैं। यद्यपि आन्तरिक आकर्षण और बाहरी मांग में एक विजयपूर्ण समन्वय की परंपरा और आदर्श को स्थिर रखा गया है, फिर भी इसके अधिक उदाहरण देखने में नहीं आते।
वस्तुतः जब मनुष्य अपनी दृष्टि और शक्ति अंतर की ओर मोड़ता है तथा योग मार्ग में प्रवेश करता है, तो ऐसा लगता है कि वह हमारे सामूहिक जीवन और मनुष्य जाति के लौकिक प्रयत्न के लिए अनिवार्य रूप से निकम्मा हो गया है। यह विचार इतने प्रभावशाली हो गए हैं और प्रचलित दर्शनों और धर्मों ने इतना बल दिया है कि जीवन से भागना आजकल योग की आवश्यकता नहीं बल्कि उसका सामान्य उद्देश्य माना जाता है। योग का सच्चा और पूर्ण उपयोग और उद्देश्य तभी साधित है जब मनुष्य के अन्दर सचेतन योग पृथ्वी में चल रहे अवचेतन योग की भाँति बाहरी जीवन के समान ही व्याप्त हो जाये। तभी हम मार्ग और उपलब्धि दोनों को देखते हुए एक बार फिर एक अद्वितीय और आलोकित अर्थ में बह सकते हैं—समस्त जीवन ही योग है।
— परम् श्रद्धेय गुरुदेव ब्रह्ममुर्ति योगतीर्थ जी महाराज
—- योग एवं आयुर्वेद विशेषज्ञ
—-संस्थापक ध्यान योग आश्रम एवं आयुर्वेद शोध संस्थान