जीवन में योग का महत्व
मनुष्य के साथ इस पृथ्वी पर महिमा का अवतरण होता है। कल्पना कीजिए, यदि इस संसार से मनुष्य का अस्तित्व समाप्त हो जाए, तो उसके साथ ही जीवन की मिठास भी खत्म हो जाएगी। मनुष्य के बिना प्रार्थना समाप्त हो जाएगी, और परमात्मा का अनुभव भी खो जाएगा। संपूर्ण धरती पर शून्यता और सन्नाटा छा जाएगा। इस संसार से गहराई और महिमा भी चली जाएगी, क्योंकि मनुष्य के भीतर ही परमात्मा छिपा होता है। मनुष्य बिना परमात्मा के नहीं रह सकता।
मनुष्य दो संसारों के बीच एक रहस्य है। वह एक सेतु है—पदार्थ और मन के बीच, संसार और परमात्मा के बीच, क्षणिक और शाश्वत के बीच, जीवन और मृत्यु के बीच। यही मनुष्य के रहस्य और उसकी सुंदरता का आधार है। इस विरोधाभास में मनुष्य की अनोखी स्थिति है।
मनुष्य को बाहरी रूप से जानने का कोई तरीका नहीं है। यदि आप उसे बाहरी दृष्टि से समझने की कोशिश करेंगे, जैसा कि वैज्ञानिक करते हैं, तो वह आपको जानवरों से भी बदतर लगेगा। मनुष्य को समझने का एकमात्र तरीका है अपने भीतर के मनुष्य को जानना। सीधे-सीधे मनुष्य को जानने का उपाय आत्मसाक्षात्कार ही है।
आपके भीतर एक विशाल शक्ति छिपी हुई है। जब तक आप उससे परिचित नहीं होते, तब तक आप उसे दूसरों में नहीं देख सकते, न ही पहचान सकते हैं। यह एक कसौटी है—जितना आप खुद को जानते हैं, उतना ही आप दूसरों को जान सकते हैं। इससे अधिक जानना असंभव है। सबसे पहले आपको अपनी गहराई में उतरना होगा, तभी आपकी आंखें दूसरों की गहराई को पहचानने में सक्षम होंगी।
योग एक साधन है, जो आपको आपके अस्तित्व की गहनता से और आपकी आत्मा की निजीता से जोड़ता है। यह एक आधार है जिसमें आप डुबकी लगाते हैं, लेकिन कभी उस स्थिति तक नहीं पहुंच पाते जहां आप कह सकें कि अब मैंने सब कुछ जान लिया है। आप यह नहीं कह सकते कि मैं अब सीमा तक पहुंच गया हूं, क्योंकि न तो बाहरी अस्तित्व में कोई सीमा है और न ही आपके भीतर।
जब आप अपने भीतर की भगवत्ता को पहचान लेते हैं, तो संपूर्ण अस्तित्व बदल जाता है। वह फिर साधारण और पुनरावृत्त संसार नहीं रह जाता। अस्तित्व को जान लेने के बाद कुछ भी साधारण नहीं रह जाता, सब कुछ असाधारण और नया हो जाता है। संसार की हर वस्तु जीवंत हो उठती है, और आप हर जगह परमात्मा को देखने लगते हैं। यही परमात्मा को जानने का सही तरीका है।
संपूर्ण योग का उद्देश्य अप्रकट को प्रकट करना है। अपने भीतर के द्वारों को खोलना है और उस मंदिर में प्रवेश करना है जो हम स्वयं हैं। यह स्वयं का साक्षात्कार है।
शायद आपको अपने बारे में पता न हो, लेकिन आपने कभी स्वयं को खोया नहीं है। हो सकता है कि आप उसे बिल्कुल भूल जाएं, पर वह आपसे कभी अलग नहीं हुआ है।
अतः सवाल केवल इतना है कि उसे कैसे प्रकट किया जाए, कैसे जाना जाए? वह ज्ञान की परतों में ढका हुआ है, और योग इन परतों को धीरे-धीरे हटाकर आंतरिक रहस्य की ओर ले जाता है। योग की इस खोज में आठ चरण होते हैं। प्रारंभिक चरण 'बहिरंग योग' कहलाते हैं, जो यम, नियम, आसन, प्राणायाम, और प्रत्याहार हैं। ये पांच चरण बाहरी योग के रूप में जाने जाते हैं। शेष तीन—धारणा, ध्यान और समाधि—'अंतरंग योग' के रूप में, यानी आंतरिक योग के रूप में जाने जाते हैं।
–परम् पूज्य गुरुदेव ब्रह्ममूर्ति योगतीर्थ जी महाराज
संस्थापक ध्यान योग आश्रम एवं आयुर्वेद शोध संस्थान