जीवन और योग भाग १

मनुष्य की सहजता और योग का मार्ग
गंभीरता का बोझ: क्या हम स्वयं से दूर हो रहे हैं?
मनुष्य को सदियों से गंभीर होने की शिक्षा दी जा रही है। मनुष्य की स्थिति निराशाजनक दिखायी पड़ती है क्योंकि हम स्वयं के साथ कुछ अनुचित कर रहे हैं। हमने अभी तक यह जाना ही नहीं है कि सहज और स्वाभाविक होना ही जीवन का लक्ष्य है। जबकि जीवन में जिन सभी लक्ष्यों के लिए हमें शिक्षा दी जाती है, वे हमें और अधिक असहज व अस्वाभाविक बना देते हैं।

पतंजलि के योग की परिभाषा
स्वाभाविक होने को, अस्तित्व की लय के साथ एक हो जाने को ही पतञ्जलि ‘योग’ कहते हैं। स्वाभाविक होना और अस्तित्व की धड़कन के साथ एक हो जाना ही योग है। योग को आरोपित नहीं किया जा सकता। योग को बाहर से थोपा नहीं जा सकता। व्यक्ति के अंतः-स्वभाव का खिल जाना ही योग है। अपने स्वभाव में अर्थात् अन्तः-प्रकृति के स्वधर्म में वापिस लौट जाना ही योग है।

अपने स्वभाव में लौटने की यात्रा
अपने स्वभाव में लौटना कैसे हो? मनुष्य का स्वभाव क्या है? जब तक हम स्वयं के भीतर गहरे नहीं जाते, हम कभी नहीं जान सकेंगे कि मनुष्य का स्वभाव क्या है? व्यक्ति को स्वयं के भीतर जाना होता है। योग की पूरी की पूरी प्रक्रिया तीर्थयात्रा है, अंतर्यात्रा है। एक-एक कदम के माध्यम से आठ चरणों के द्वारा पतञ्जलि वापिस घर की ओर ले जा रहे हैं। पहले पाँच चरण-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार ये शरीर से पार स्वयं की गहराई में उतरने में मदद करते हैं।

शरीर, मन और स्वभाव का अतिक्रमण
शरीर पहली सतह है, अस्तित्व का पहला सकेन्द्रित घेरा है। दूसरा चरण है-मन के पार जाना। धारणा, ध्यान, समाधि – तीन आंतरिक चरण मन के पार ले जाते हैं। फिर शरीर और मन के पार है-स्वभाव। और यही अस्तित्व का भी केन्द्र है। अस्तित्व के उसी केन्द्र को पतञ्जलि निर्बीज समाधि या ‘कैवल्य’ कहते हैं। पतञ्जलि उसे ही अपने मूल केन्द्र का साक्षात्कार करना और यह जान लेना कि ‘मैं कौन हूँ’ कहते हैं।

तीन भागों में विभाजित योग यात्रा
इसलिए सम्पूर्ण यात्रा को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है:

शरीर का अतिक्रमण
मन का अतिक्रमण
स्वयं के अस्तित्व से मिलना
बाहरी लक्ष्य और अंदरूनी सच्चाई
सम्पूर्ण संसार में, सभी संस्कृतियों में हमें सिखाया जाता है कि लक्ष्य की प्राप्ति हमें स्वयं से बाहर करनी है। चाहे वह लक्ष्य धन, सत्ता, पद या परमात्मा का हो, इससे फर्क नहीं पड़ता। परन्तु योग के अनुसार सच्चा लक्ष्य वही है, जहाँ से हम आए हैं – हमारे भीतर। बाहर के सभी लक्ष्यों को गिराकर भीतर जाना ही योग का संदेश है।

मन का खींचातानी और आरोपित लक्ष्य
तुम्हारी नियति क्या है? तुम इस संसार में कुछ प्राप्त करने के लिए बने हो, मन को इसी प्रकार से खींच-तानकर तैयार किया जाता है। मन को माता-पिता, परिवार, शिक्षा, समाज और सरकार द्वारा नियंत्रित किया जाता है। ये सभी व्यक्ति के बाहर के लक्ष्य निर्धारित करते हैं, जबकि योग कहता है कि वास्तविक लक्ष्य भीतर ही है।

स्वयं का बोध और योग का पथ
कहीं बाहर जाना नहीं है, बल्कि स्वयं की पहचान करनी है कि ‘मैं कौन हूँ’। और जब स्वयं का बोध हो जाता है, तब कहीं भी जाओ, तुम्हें वही लक्ष्य मिलेगा। पतंजलि समाधि योग यही सिखाता है कि सच्चाई की खोज बाहर नहीं, भीतर है।

बाहरी अनुशासन और आंतरिक सत्य
सत्संग का अर्थ है-सत्य को उपलब्ध प्रामाणिक, संयमवान व्यक्ति के साथ होना। बाहरी अनुशासन का अभ्यास करना सरल होता है, लेकिन यह सच्चाई नहीं है। बाहरी अनुशासन में रहकर व्यक्ति अपने भीतर की अशांति को छिपा लेता है। योग कहता है कि किसी भी चीज़ को अपने ऊपर आरोपित मत करो, क्योंकि सच्चाई भीतर से ही आती है।

पतंजलि के अष्टांग योग की चट्टानों को हटाना
पतञ्जलि के अष्टांग मार्ग के आठ चरण, बाहरी बाधाओं को हटाने के क्रमबद्ध ढंग हैं। बाहरी अनुशासन को अपनाना आसान होता है, लेकिन यह सच्चा अनुशासन नहीं है। योग आंतरिक अनुशासन की बात करता है, जहाँ व्यक्ति स्वयं की परिपूर्णता को महसूस करता है।

योग और शांति का आभामण्डल
जब व्यक्ति योग में पारंगत हो जाता है, तब उसके चारों ओर एक शीतल और शांत आभामंडल बन जाता है। यह आभा दूसरों को भी प्रभावित करती है। यदि कोई ज्ञानी व्यक्ति तुम्हारे निकट आता है, तो तुम्हारी अशांति कम होने लगती है। योग व्यक्ति को शांति, संयम और चुम्बकीय शक्ति प्रदान करता है।

सत्संग और गुरु के साथ की महत्ता
भारत में सत्संग की परंपरा रही है, जहाँ बोध प्राप्त व्यक्ति के साथ बैठना सिखाया जाता है। ऐसे व्यक्ति के निकट बैठने मात्र से ही आध्यात्मिक घटना घटित हो जाती है। इस मौन संवाद को सत्संग कहते हैं। इसे समझना आसान नहीं होता, लेकिन यह आभामण्डल शांति और संतोष का अनुभव कराता है।

योग की आभा: शांति और संतोष की अनुभूति
जब योगी का आभामंडल बन जाता है, तो वह हर जगह शांति और संतोष की ऊर्जा फैलाता है। यह ऊर्जा अन्य लोगों को भी प्रभावित करती है। ज्ञानी व्यक्ति के निकट बैठने से अशांति समाप्त हो जाती है। इस चुम्बकीय शक्ति के प्रभाव से व्यक्ति भी उन्नति की ओर बढ़ता है।

इसलिए, योग का सच्चा अर्थ आत्मा के साथ मिलकर शांति और संतोष की प्राप्ति करना है।

परम् पूज्य गुरुदेव ब्रह्ममूर्ति योगतीर्थ जी महाराज

संस्थापक ध्यान योग आश्रम एवं आयुर्वेद शोध संस्थान

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