आसन की साधना

“आसन की साधना”

प्रयत्नशैथिल्यानन्तसमापत्तिभ्याम् ॥ 47 ॥

प्रयत्न की शिथिलता और असीम पर ध्यान से आसन सिद्ध होता है।

आसन को सिद्ध करने के लिए प्रयत्न की शिथिलता पहली बात है; यदि तुम आसन की सिद्धि चाहते हो, सुखद और स्थिर। शरीर इतने आराम में होता है कि उसके हिलने-डुलने की इच्छा बिल्कुल खो जाती है, शरीर एकदम अकम्प हो जाता है।

तुम्हारी भावदशा के बदलने से शरीर बदलता है, शरीर के बदलने से तुम्हारी भावदशा बदलती है। यदि आपके मन में क्रोध के भाव हैं तो आसन को अर्थात  बैठने के ढंग को बार-बार बदलना पड़ेगा। यदि मन में कोई करुणा है, प्रेम है, शांत मन  है तो शरीर बिल्कुल स्थिर हो जाता है।

आसन की सिद्धि में पहली बात है प्रयत्न की शिथिलता। जो इस संसार की सर्वाधिक कठिन बात में से एक है। यदि तुम उसे समझ लेते हो तो वह बहुत सरल है, यदि तुम नहीं समझते तो बहुत कठिन है। यह किसी अभ्यास की बात नहीं यह एक समझ की बात है। क्योंकि मनुष्य के मन पर “विपरीत प्रभाव का नियम” कार्य करता है। कुछ चीजें हैं जिन्हें तुम करना चाहते हो तो कृपया उन्हें करने की कोशिश मत करना, अन्यथा विपरीत प्रभाव पड़ेगा।

उदाहरण के लिए तुम्हें नींद नहीं आ रही है तो नींद लाने का प्रयास मत करना, यदि तुम प्रयास करते हो तो नींद और मुश्किल हो जाएगी। यदि तुम बहुत प्रयास करोगे तो नींद असंभव हो जाएगी क्योंकि प्रत्येक प्रयास नींद के विपरीत है। नींद तभी आती है जब कोई प्रयास नहीं होता, जब तुम बस केवल विश्राम में होते हो और कुछ नहीं। तुम नींद के विषय में सोच तक नहीं रहे होते; कुछ चित्र गुजरते हैं मन से, कुछ विचार गुजरते हैं मन से, तुम तटस्थ भाव से देखते रहना, उनमें कोई रस नहीं होना चाहिए, तुम केवल विश्राम में होते हो, कोई लक्ष्य नहीं होता और नींद आ जाती है।

जब शरीर गहन विश्राम में उतर रहा होता है तो तुम्हारा मन केन्द्रित होना चाहिए असीम पर। मन बहुत कुशल है सीमित के साथ। यदि तुम धन के विषय में सोचते हो तो मन  कुशल है, यदि तुम धारणाओं के, सिद्धांतों के विषय में सोचते हो तो मन कुशल है; यह सब सीमित बातें हैं। लेकिन यदि तुम परमात्मा के विषय में सोचते हो तो अचानक मन ठिठक  जाता है, एक शून्य आ जाता है। तुम क्या सोच सकते हो परमात्मा के विषय में? यदि तुम कुछ भी सोचते हो तो फिर वह परमात्मा, परमात्मा नहीं है; वह सीमित हो गया। यदि तुम परमात्मा का विचार करते हो कृष्ण के रूप में, राम या शिव के रूप में तो वह परमात्मा नहीं है, क्योंकि तब वहाँ सीमा आ गई। असीम की कोई छवि नहीं, आकार नहीं।

दो प्रकार के परमात्मा हैं – पहला है धारणा का परमात्मा। हिन्दू, मुसलमान, ईसाई सभी के परमात्मा धारणा के परमात्मा हैं। और दूसरा है अस्तित्वगत परमात्मा; धारणागत नहीं, वह असीम है।

परमात्मा कोई धारणा नहीं है। धारणा तो एक खिलौना है जिससे तुम्हारा मन खेलता रहता है। वास्तविक परमात्मा तो बड़ा विराट है। तब परमात्मा मिलता है तुम्हारे मन के साथ, न कि तुम्हारा मन मिलता है।

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