प्रकाश और अज्ञान की परतें
जब कोई व्यक्ति अपने भीतर की यात्रा करता है, तो उसे तुरंत प्रकाश नहीं मिलता, क्योंकि वह बहुत गहराई में छिपा होता है। हमारे भीतर अज्ञान की गहरी परतें होती हैं जो हमें अपने केंद्र से दूर रखती हैं। जब हम आत्मा की खोज शुरू करते हैं, तो अक्सर हमें केवल छाया ही दिखाई देती है। ये छाया रंग-बिरंगे इंद्रधनुष की तरह होती हैं, जो वास्तविक नहीं होतीं। जब हम इन छायाओं के पीछे भागते हैं, तो वे क्षितिज की तरह होती हैं—हमेशा दूरी पर, कभी भी सच्चाई से नहीं मिलतीं।
छाया और आत्मा
हमने अपने जीवन को छायाओं में जीना शुरू कर दिया है। बाहर जो छाया हमें दिखाई देती है, वह तो कल्पना है, लेकिन हमारे भीतर हमने झूठ, वासनाओं और अधर्म की जो छाया बनाई है, उसे हम सत्य मानकर जीते हैं। यह छाया असली छाया नहीं है। असली छाया वह है, जो हमने अपने अहंकार और अज्ञान से बनाई है। इसी छाया को हम “मैं” मान बैठे हैं और उसके आसपास ही संसार की कल्पना कर ली है।
जब साधक की निर्णय की आँख खुलती है, तो सबसे पहले वह अपनी इस आंतरिक छाया से मिलता है।
दो प्रकार का प्रकाश
जिस प्रकार दो प्रकार की छाया होती हैं—एक बाहर की और एक भीतर की, वैसे ही दो प्रकार के प्रकाश होते हैं। बाहर का प्रकाश सूर्य का होता है और भीतर का प्रकाश आत्मा का, चेतना का और ज्ञान का होता है। कई साधनाएँ हैं, जो इस प्रकाश की कल्पना से शुरू होती हैं, लेकिन यह कल्पित प्रकाश आपको अज्ञान से बाहर नहीं ले जा सकता। यह केवल मन की उपज होती है और अंधकार को मिटाने में असमर्थ होती है।
आंतरिक प्रकाश की खोज
एक और प्रकाश है, जिसे हम निर्मित नहीं करते। जब हम अंधेरे में प्रवेश करते जाते हैं, तो धीरे-धीरे अज्ञान का अंधकार दूर होता जाता है। पतंजलि ने इस प्रक्रिया को आठ चरणों में विभाजित किया है, जिसे अष्टांग योग कहा जाता है। प्रत्येक चरण के साथ योग की यात्रा करते हुए, अज्ञान का गहन अंधकार तिरोहित होता जाता है, और एक दिन आंतरिक प्रकाश उपलब्ध हो जाता है।
यह प्रकाश कोई गुरु आपको नहीं दे सकता, लेकिन वह आपके अंधकार को दूर कर सकता है। क्योंकि प्रकाश और ज्ञान आपका स्वाभाविक स्वरूप है।
अष्टांग योग के द्वार
अष्टांग योग मार्ग का पहला द्वार बहुत बड़ा होता है, और हर अगले द्वार के साथ यह संकीर्ण होता चला जाता है। अंतिम द्वार, समाधि का द्वार, इतना संकीर्ण होता है कि उसमें प्रवेश केवल तब ही संभव है जब साधक पूर्णत: तैयार हो। यह वह स्थान है, जहाँ साधक को अपने ही द्वार में प्रवेश करना होता है।
योग की यात्रा: उत्सवमयी होनी चाहिए
योग की साधना एक आनन्दपूर्ण यात्रा होनी चाहिए। यह आनन्द केवल अंत में नहीं, बल्कि यात्रा के हर चरण में होना चाहिए। यदि आपकी यात्रा उत्सवमयी नहीं होगी, तो आप उदासी का अनुभव करेंगे, और यह उदासी शरीर और मन को बीमार बना देगी।
इसलिए, साधक को अष्टांग योग के रूप में परिधि से केंद्र की ओर, शरीर से आत्मा की ओर यात्रा करनी चाहिए। इस यात्रा में आपको महसूस होगा कि आपके भीतर अनंत प्रकाश है, लेकिन आप उससे पीठ किए बैठे हैं।
–परम् पूज्य गुरुदेव ब्रह्ममूर्ति योगतीर्थ जी महाराज
संस्थापक ध्यान योग आश्रम एवं आयुर्वेद शोध संस्थान